बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

निरीह प्राणियों की क़ुर्बानी से शक्ति की यह कैसी भक्ति !!

कितने उत्साह एवं हर्षोलास के साथ आज चारो तरफ लोग माँ दुर्गा की भक्ति में लीन होकर लोग उनकी आराधना में लगे हुए हैं. नौ दिन बिलकुल पवित्रता के साथ नवरात्र का पालन कर रहे हैं. प्रशासन भी उनके त्यौहार में तन-मन धन के साथ पूरा सहयोग कर रहा है. यहां तक कि प्रधानमन्त्री के आह्वान पर पूरे जोर- शोर के साथ सफाई अभियान चल रहा है. इसी बीच गांधी- जयंती के अवसर पर मांस - मछली की दूकान बंद रखने का एलान हुआ है.  गवर्नर साहब ने भी लोगों से अपील किया है कि सफाई करें तथा गन्दगी न फैलाएं। इन सब के लिए मै सबका ह्रदय से धन्यवाद करती हूँ।  

लेकिन दूसरी ओर इन सारी भक्ति भावनाओं एवं गांधी जी के सुविचारों को भूलकर माँ दुर्गा के नाम पर बेचारे बेक़सूर निरीह बकरियों एवं भैंसों की बलि चढ़ाना शुरू कर देंगे। बाद में अखबार के पन्ने बलि चढ़ानेवालों के नाम से भरे होते हैं, खासकर नेताओं के जो अपने आप को श्रेष्ठतम सिद्ध करने के लिए ऐसी घोषणा करते हैं कि फलाने मंदिर में फलाने नेता ने इतने और उतने दर्जन बकरे की बलि दी. इसी तरह कोई अन्य नेता किसी देवी विशेष पर दी गयी भैसों की बलि का ब्यौरा छपवाते हैं. यह कहाँ तक उचित है कि एक निरीह प्राणी की बलि को अपनी भक्ति का प्रमाण बनाकर समाज के सामने पेश किया जाए. अभी बकरीद भी आ गयी है और उसके नाम पर न जाने कितने तूम्बा और बकरे बेचारे की जान जायेगी। हर पर्व के मौके पर दोनों ही धर्मो के ज्ञाता अखबारों के माध्यम से यह अवश्य बताते हैं कि बलि तथा जीवों की क़ुरबानी वर्जित है. यह कैसे हो सकता है कि किसी भी धर्म का पूज्य कोई देवी देवता किसी के प्राणो की आहुति से प्रसन्न हो जाए? अतः सभी धर्मावलम्बियों से आग्रह है की धर्म और भगवान या अल्लाह के नाम पर निरीह जीवों की हत्या न करें। इसमें प्रशासन और धर्म के संरक्षकों दोनों से हम सहयोग एवं समर्थन की अपील करते हैं कि ऐसे बलिदानो को रोकने की पहल करें।                


मंगलवार, 2 सितंबर 2014

समानता नर-नारी की

समानता  नर-नारी की

साथ जन्मी फिर साथ पली , साथ बढ़ी और साथ पढ़ी।
दोनों ने फिर विवाह किया, गार्हस्थ्य का निर्वाह किया।।
यदि तुम  किसी की भर्तृ, तो मै किसी की भरणी। 
जैसा तेरा काम, वैसी मेरी करनी।।
तुम भये यदि जनक, तो मै भयी जननी।   
तुम भये दादा नाना, तो मै दादी नानी।।
फिर मै मरी, फिर तू मरा।
फिर मै जरी, फिर तू जरा।।
जरा - मरण तक साथ खड़ा। 
अब बता - कौन बड़ा?   
--
सरिता कुमारी 

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

सुशील मोदी जी को 'बिहार निकाला' की सजा मिले

हरियाणा के भाजपा नेता धनकड़ के साथ बिहार के भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं १० वर्षों तक बिहार के पूर्व उप मुख्य मंत्री रहे श्री सुशील कुमार मोदी ने बिहार की बेटियों के लिए जो बयानबाजी कर रहे हैं और उस पर अड़े हुए भी हैं, बिलकुल बर्दास्त योग्य नहीं हैं. अगर लालू जी ने अपनी बेटियों की शादी हरियाणा में की है तो क्या यह अपराध है? क्या इसका मतलब यह हुआ की बिहार की सभी लड़कियों की शादी जबरन हरियाणा में कर दी जाए? यह तो किसी घटिया सोच का नतीजा हो सकता है. सुशील जी बताएं कि उनके घर में फुआ, बहन, बेटी, पोती आदि की शादी कहीं न कहीं हुई होगी तो क्या उनके यहां जन्मे सभी बहन बेटियों की शादी खरीद फरोख्त द्वारा ही हुआ है? यदि नहीं, तो धनकड़ एवं हरियाणा के अविवाहित नवयुवकों के साथ इतनी हमदर्दी रखनेवाले को चाहिए कि सुशील मोदी जी की घर की महिलायें उनके कान पकड़कर तथा बिहार महिला आयोग की मदद लेकर 'बिहार निकाला' की सजा दिलाएं। यदि सुशील जी को बिहार की बेटियों की इतनी ही चिंता है तो वे बताएं कि  नौकरी के नाम पर ठगी करनेवाले लड़कियों को बेचनेवाले कितने कारोबारिओं को उन्होंने सजा दिलवाए हैं? कितनी बेटियों को बचाने का काम कियेहैं? यदि नहीं, तो किसने इन्हे सारे बिहार की बेटियों को बेचने का अधिकार दिया है? संविधान ने तो बेटी के पिता को भी ऐसा अधिकार नहीं दिया है कि जबरन अपनी बेटी की शादी किसी कुँवरठेठा बंडा के साथ करवाये। यदि हरियाणा वाले अपने यहां खाप पंचायत द्वारा जिस तरह से महिलाओं पर अत्याचार करते नहीं थक रहे हैं एवं बेटी भ्रूण ह्त्या जैसे असामाजिक तथा अमानवीय अपराध कर रहे हैं उसकी सजा तो उन्हें भुगतनी ही चाहिए। सुशील जी संविधान के नियमों के उलंघनकर्ता को सजा दिलवाने के बजाये उन्हें तो और पुरष्कृत करने के प्रस्ताव में धनकड के साथ युगलबंदी कर रहे हैं. हरियाणा वाले अपराध किये हैं तो वे लोग प्रायश्चित के तौर पर सन्यासी जीवन बिताएं तथा समाज एवं देश के कल्याण के काम कर अपने समाज और राज्य के कलंक को धोएं तो शायद माँ दुर्गा उन्हें क्षमा कर दें।
-- सरिता कुमारी          

बुधवार, 2 जुलाई 2014

झारखण्ड नागरिक प्रयास का नागरिक हस्तक्षेप

अभी दो दिन पूर्व ३० जून के समाचार पत्रों में एक खबर दिखी जो झारखण्ड नागरिक प्रयास समूह के 'झारखंड की दशा-दिशा' विषय पर सेमिनार की रिपोर्ट थी. देखकर सुखद आश्चर्य से ज्यादा खुशी हुयी। ऐसा लगा की अब झारखंडी भी वस्तु- स्थिति को समझ रहे हैं और सक्रिय होकर सरकारी मशीनरी के दमन और पूंजीपतियों के लूट और अत्याचार से बचने का कोई रास्ता ढूंढ सकेंगे. यों तो रांची में सिविल सोसाइटी के नाम से और भी समूह देखे गए पर वे केवल मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों की सुविधाओं के लिए बातें करते थे. देखना है कि 'झारखण्ड नागरिक प्रयास' उनसे कितना अलग है. बुज़ुर्गों से सुनते रहे हैं कि अंग्रज़ी हुकूमत में और आज़ादी के कुछेक वर्षों बाद तक सरकारी कर्मचारी जैसे पटवारी, पट्रोल, स्वास्थय एवं रेवेन्यू कर्मचारी, बिजली कर्मचारी, स्कूल इंस्पेक्टर इत्यादि गाँव में आते थे और मौके पर अपना कार्य निपटाने के बाद गाँव की समस्याओं पर बाते भी करते थे तथा समाधान भी बताते थे या करते थे।  पुलिस तब भी गाँव में आती थी पर अपनी ड्यूटी से सम्बंधित काम करने, अन्य किसी तरह का पेंच फ़साने नहीं जैसा हाल में धुर्वा के तीन लड़कों को फ़साने के लिए पुलिस ने किया। अब यह सब सपने की तरह लगता है, सरकारी मुलाज़िमों का गाँव, मुहल्ला या कस्बा जाने की बात तो दूर की है वे अपने दफ्तर में भी नहीं मिलते, मिल गए तो पूजा चढ़ाएं, फिर भी महीनो दौड़ते रहें, जनता का काम न हुआ न होने की उम्मीद होती है. दलालों की बीच में चांदी होती है. अभी व्यवस्था से सम्बंधित सरकारी कार्यालयों को एक बार झांककर जो भी देख लेगा उसके होश फाख्ता हो जाएंगे। मंत्री एवं अधिकारी, सभी समाचार पत्रों में सरकार विरोधी खबर या घटना का एक ही उत्तर देते हैं 'फाइल मेरे पास आने दीजिये देख लूंगा'। जब पूरी खबर सामने है तो अब फाइल में क्या देखना. अगर देखना ही है तो आधुनिक संचार व्यवस्था  का सहारा लेकर जल्द मंगाकर फाइल देख ले. अब तो मीडिया के द्वारा किये गए या नागरिक समितियों की जांच रिपोर्ट भी कोई असर सरकार पर नहीं डालती,  सभी तरह के औजार कुन्द होते जा रहे हैं. इसी स्थिति में नागरिक प्रयास की आवश्यकता है. जनता का सीधा हस्तक्षेप अब आवश्यक हो गया है.  लेकिन झारखण्ड नागरिक प्रयास से आशा है कि अब तक उन्होंने मोटामोटी उद्देश्य ही बताए हैं क्या वे अपने कार्यक्रमों और तौर तरीकों का खुलासा भी जल्द करेंगे ताकि अधिक से अधिक नागरिक आश्वस्त होकर उनके साथ कदम में कदम मिला सकें।      

बुधवार, 25 जून 2014

यदि बेटी मारी गयी तो मायके वालों की खैर नहीं !


रांची के DIG के माध्यम से प्रभात खबर के 25 जून 2014 के रांची अंक के पेज संख्या 8 में एक अहम फैसला/ आदेश छपा "यदि ह्त्या हुई तो थानेदारों की खैर नहीं !" जो स्वागत योग्य है. इससे आम लोगों के मन में एक विश्वास अवश्य उत्पन्न हुआ है कि सभी पुलिस वाले शायद अपनी जिम्मेदारी अवश्य निभाएंगे जिससे कि ह्त्या न के बराबर होगी और जनता निर्भयता के साथ जीवन जी सकेगी।

इसी प्रकार से बेटियों की सुरक्षा हेतु झारखण्ड के DGP महोदय से एक फरमान सख्ती से जारी करने का मै आग्रह करती हूँ कि "यदि बेटी मारी गयी तो मायके वालों की खैर नहीं !" क्योंकि अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पाने के लिए प्रायः मायके वाले ससुराल वालों पर दहेज़ रूपी हथकंडा थोप देते हैं। यानि जब कोई बेटी मारी जाती है तो यही खबर छपता है कि "दहेज़ की खातिर एक और बेटी मारी गयी." क्या सचमुच ऐसा होता है? यदि यह सच होता तो बेटी के मरने से पहले मायके वाले क्या करते रहते हैं?  अपनी बेटी की सुरक्षा हेतु उसके जीवित रहते FIR क्यों नहीं करते या कोई अन्य सामाजिक-कानूनी कदम क्यों नहीं उठाते? उसको बेटे की तरह अपने यहां आश्रय एवं सुरक्षा क्यों नहीं देते? क्यों जब  ससुराल से ऊबकर वह मायके आती है तो उसे दुबारा डरा धमका कर तथा गाली गलौज करके उसे उलटे पाँव वापिस भेज दिया जाता है? तब वह  जाकर आत्म ह्त्या करने पर विवश हो जाती है। तब मायके वाले अपने बचाव के लिए दहेज़ का अच्छा बहाना ढूंढ लेते हैं तथा तब वे केस मुक़दमे की कार्रवाई में जाते हैं।

अतः DGP महोदय से अनुरोध करते हैं कि कुछ कठोर नियम बनाएं और मायके वालों पर वे अवश्य लगाम कसें कि अगर कोई बेटी मरती है तो पहले उसके मायकेवाले को गिरफ्तार करें, बाद में ससुराल वालों को। तब समाज और प्रशासन को यह दिखेगा कि एक भी 'बेचारी' बेटी नहीं मारी जाएंगी क्योंकि तब सबको अपनी सुरक्षा की पड़ेगी तभी उनकी आँख खुलेगी की बेटी को बोझ समझकर उसे गलत जगह विवाह कराने तथा अपनी जिम्मेदारियों से मुकरने का क्या नतीजा होगा। साथ ही दृढ़ता से इसका अनुपालन करने कराने वाले पुलिस कर्मियों को पुरस्कृत करने की घोषणा भी अगर DGP महोदय करें तो बेटी और महिलायें ज्यादा सुरक्षित हो सकेंगी। 

इसे सही साबित करने के लिए इस विषय पर सर्वे कराकर या गंभीर अध्ययन के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि बेटियां अपने मायके में ज्यादा प्रताड़ित होती है खासकर क्वांरी बेटी। उसके माँ बाप भाई आदि सभी  दुश्मन की तरह व्यवहार करते हैं लेकिन सजा का कोई प्रावधान न होने की वजह से वे बचते चले जाते हैं। बेटी अगर ऊबकर क्वांरी मरती है तो उसे प्रेम प्रसंग बताकर, ससुराल में मरती है तो दहेज़ के लिए कहकर क़ानून से भी बच निकलते हैं। जब बेटी मायके में प्रताड़ित होती है तो उसे एक आशा रहती है कि जाने दें हम  ससुराल चले जाएंगे तो हम सुरक्षित हो जाएंगे किन्तु जब माँ बाप भाई आदि के करतूत से उसे ससुराल भी ढंग का नहीं मिलता तो विवश होकर उसे आत्महत्या की दहलीज तक पहुँचने को मजबूर होना पड़ता है। तब मायके वालों की चांदी - अब फसे ससुराल वाले, उन्हें तो बेटी के हिस्से की सम्पति भी बैठे बिठाए हाथ लग गयी। सबूत के तौर पर आप देखेंगे कि जागरूक माँ बाप की बेटियां कभी नहीं मारी जातीं क्योंकि वे अपनी बेटी को आदमी समझते है तथा उनकी सुरक्षा का हमेशा ख़याल रखते हैं। हमारे विचार से तो आज तक "दहेज़ के लिए मारी गयी बेटियो" के जितने भी केस हैं उन सबको अच्छी तरह छानबीन किया जाए तो 99 प्रतिशत यह सच साबित होगा। मुझे आशा है कि पुलिस विभाग इस विषय पर एक कदम आगे बढ़कर बेटियों के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए उन्हें एक सुरक्षित जीवन के प्रति आश्वस्त करेगी। 

शनिवार, 8 मार्च 2014

भाजपा एवं नरेंद्र मोदी से महिला सशक्तिकरण पर कुछ सवाल

प्रभात खबर रांची संस्करण 8 मार्च 2014 
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/2521602

समाचार पत्रों से ऐसा ज्ञात हुआ कि आप ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर महिला सशक्तिकरण पर महिलाओं से उनके अधिकारों की बात करेंगे। यह जानकार खुशी हुई कि चुनाव के कारण ही सही महिलाओं की  चिंता तो हमारे माननीयों को हो रही है. परन्तु क्या यह भी जानना  मुनासिब नहीं होगा कि आप के शासन काल में पिछले एक दशक से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी गुजरात की महिलाओं को कौन कौन से अधिकार मिले हैं? वहाँ की महिलाओं को अपने मायके जहां उसकी अपनी 'जननी एवं जन्मभूमि ' है पर कितना हक़ प्राप्त हुआ? क्या गुजरात कि महिलाओं को अपने माता-पिता (पैतृक) की सम्पति पर वही अधिकार प्राप्त है जो एक बेटे या भाई को प्राप्त है ? क्या गुजरात के रजिस्ट्री ऑफिस या  अंचल कार्यालयों में पिता माता की मृत्यु के पश्चात बिना बहन, फुआ या बेटी के हस्ताक्षर के चल-अचल सम्पति की खरीद बिक्री पर रोक लगी? क्या  वहाँ की महिलाओं को भाई के समान सभी अधिकारों से लैस होकर अपने मायके में रहने का अधिकार मिला जब की हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम २००५ के लागू हुए भी आठ वर्षों से अधिक बीत गए है? याकि उन्हें कुछ लेन देन करके विस्थापन का दंश झेलने के लिए मज़बूर होना पड़ता है? जी हाँ, मायके से ससुराल भेजकर बेटियों की सम्पति पर बेटों का अधिकार सुरक्षित करना विस्थापन से भी ज्यादा कष्टदायी है क्यूंकि महिलाओं को तो विस्थापन की क्षतिपूर्ति का अधिकार भी  नहीं होता है. क्या इसके लिए आज भी महिलाओं को कोर्ट का दरवाजा खटखटाना नहीं पड़ रहा है? यदि गुजरात के सन्दर्भ में इन प्रश्नो  का उत्तर हाँ में हो तो आप हम महिलाओं का अधिकार सचमुच में सुरक्षित करेंगे इसका विश्वास करना होगा। लेकिन खबरों के अनुसार आप के शासन काल में गुजरात में ऐसा कुछ हुआ नहीं। इसलिए लगता तो ऐसा ही है कि आप भी चुनाव में वोट प्राप्त करने के लिए बहलाने फुसलाने की कोशिश कर रहे है. फिर भी भविष्य का ख़याल करते हुए अगर आप महिलाओं को उपरोक्त अधिकार दिलवाना आप की प्राथमिकता में  प्रथम स्थान पर हो जिससे महिलायें सशक्त हो सकें तो यह उनपर बड़ी कृपा होगी और आप हमारे मत के एक विकल्प हो सकेंगे वर्ना जब हम अपने घर में ही मूल अधिकारों से वंचित हैं तो बाकी जगहों की तस्वीर महिलाओं की गुलामी की ही बनती है.  

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

संतान जनें, बेटा-बेटी नहीं !

http://epaper.prabhatkhabar.com/c/2314325

संतान जनें, बेटा-बेटी नहीं !
26 जनवरी 2014  के प्रभात खबर के रांची नगर संस्करण के पेज 11 में नई दिल्ली से ‘माताओं ने बेटी के लिए बदली परम्परा' शीर्षक से एक खबर छपी है। धन्य हैं देहरादून कि वे माताएँ, जिन्होंने बेटियों के मान-सम्मान को बढ़ावा दिया तथा उनके लिए दीर्घायु होने की  मन्नत माँगी! वैसी माताओं के लिए मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि ईश्वर उन माताओं को दीर्घायु तथा धन एवं परिवार से परिपूर्ण रखें! जिन्होंने ऐसे नेक काम किये और समाज को समानता का मार्ग-दर्शन दिया।
इनके कामों तथा विचारों को समाज में पुरजोर तरीके से प्रचार-प्रसार करने की जरुरत है ताकि इनसे प्रेरित होकर हमारे देश एवं विश्व की सभी महिलाएँ इनका अनुसरण करते हुए इस बात का संकल्प लें कि हम 'बेटा-बेटी' नहीं, बल्कि अपनी संतान को जन्म दें और उसे सभी अच्छे गुणों से संवार कर एक ऐसे नागरिक बनाये जो सभी सदगुणों व उत्तम विचारों से परिपूर्ण हों. अन्यथा हम मातृत्व के योग्य नहीं हैं।  तो इस प्रकार के संकल्प से समाज में हो रहे सभी प्रकार के अत्याचार, भ्रष्टाचार, कुकर्म, कुप्रथा आदि  दुर्गुणों एवं परिस्थितियों  से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जायेगी तथा इन शब्दों  पर आधारित संस्कारों का समाज के शब्दकोश से हमेशा के लिए सफाया हो जाएगा।
अतः संपूर्ण जगत की जननियों (कम-से-कम समस्त भारत) से अनुरोध है कि देहरादून की माताओं के सम्मान में हम श्रद्धा-सुमन रूपी इस संकल्प को अर्पित करें। क्योंकि सभी अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, चोर, डकैत, कुकर्मी, बलात्कारी अवश्य ही किसी-न-किसी माँ की कोख से ही उत्पन्न हुए हैं अर्थात उनके भरण-पोषण अथवा संस्कार देने में ऐसे कुकर्मी की माताएँ ही जिम्मेदार हैं. कहीं-न-कहीं उनमें कमी अवश्य ही रही है जिसकी वजह से इस तरह के लोग आज अपने दुराचारों से समाज में विपत्ति फैलाये हुए हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए अच्छे समाज की स्थापना का बीड़ा हम सभी माताएँ ही उठायें कि जब भी हम जन्म दें तो एक अच्छे विचार वाले बच्चे को ही जन्म दें और उसे संवारें ताकि यह जगत स्वर्ग बन जाए।
जय जननी! जय भारत!! जय विश्व!!! 
       --
सरिता कुमारी 

शनिवार, 18 जनवरी 2014

यह पद - यात्रा है या छल - यात्रा ?

15 जनवरी 2014  के प्रभात खबर के रांची नगर संस्करण के पेज 11 http://epaper.prabhatkhabar.com/c/2225496 में लखनऊ से एक खबर छपी है "अपने हक़ के लिए महिला किसान करेंगी पदयात्रा"ऐसा लगता है कि जो खबर में छपा है वह महिलाओं के साथ छल की तरह है और अधकचरी सोच का नतीजा है। इस कारण से उत्तर प्रदेश में होने वाली इस महिला किसान पदयात्रा का विरोध होना चाहिए। इसे समर्थन तो कत्तई नहीं मिलना चाहिए क्योंकि यह महिलाओं के जन्म सिध्ह अधिकारों के हनन की बात कर रहा है अगर ध्यान से इसमे बताये गए पांच सूत्री मांगो को देखें तो इससे तो हमारे अस्तित्व एवं पहचान के मिट जाने का ही ख़तरा है इसमे यह मांग रखी गयी है कि "जोत जमीन में पट्टे के साथ पत्नी का नाम भी सह खातेदार के रूप में दर्ज़ करने, पट्टे द्वारा पत्नी को पैतृक जोत ज़मीन हस्तानांतरण करने पर स्टाम्प शुल्क माफ़ करने" आदि जितनी बातें रखी  गयी है वह सिर्फ पुरुष वर्ग के ही वर्चस्व स्थापित करने और कायम रखने के इरादे से कही गयी है, यानि पति के साथ पत्नी का नाम जुड़ा हो तभी उसे सरकारी और गैर सरकारी सभी तरह के लाभ प्राप्त होंगे। अर्थात महिलाओं की  अपनी पहचान या अस्तित्व का कोई महत्व नहीं है यह स्त्रियों के साथ बिलकुल धोखाघड़ी तथा अन्याय है। सबसे पहले तो इसमे खोट यह है कि सिर्फ जोत वाली ज़मीन में ही - पत्नी की साझेदारी की बात कही गयी है, गैर जोत वाली ज़मीन में क्यों नहीं?

यदि नियत बराबरी का हक़ दिलवाने की होती तो हिन्दू-उत्तराधिकार अधिनियम 2005 में महिलाओं को 'भाई बहनों को जो  पैतृक सम्पति में बराबर का अधिकार मिला है; उसका जिक्र अवश्य होता।' भाई के साथ बहन को पैतृक संपत्ति में हक़ तथा नाम एवं 'पत्नी के साथ का पत्ति का नाम' उसकी पत्नी के पैतृक संपत्ति के सह खाते में होने से 'लाभ' की बात कही होती। 

इससे साफ़ ज़ाहिर है कि बहनों  तथा बेटियों के अस्तित्व एवं पहचान मिटाने की बात कर रहे हैं ताकि भाई 'दूसरे के घर से आयी बीबी' के नाम सारी पैतृक सम्पति को कर दे एवं बहनों के अस्तित्व एवं पहचान उनके माता -पिता की सम्पति से बेदखल कर मियाँ- बीबी चैन कि जिंदगी व्यतीत करें। यह पदयात्रा कहीं 'छल यात्रा' तो नहीं?      

अतः भाई बहनों से अनुरोध है कि ऐसी 'पदयात्रा' का वहिष्कार करें तथा अपने माता-पिता के संपत्ति में  हिन्दू-उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के द्वारा जो हक़ मिले हैं, उसे आसानी से तथा भाइयों कि तरह सरल तरीके से बहनों के नाम हस्तांतरण की बात करें, तभी उस पर विचार करें। अन्यथा यह पुरुष समाज हमें सदियों से ही छलते आया है, आज भी इसे अपने अधीन तथा कब्जे में रखने कि बात को तुल दे रहा है

अतः आप सभी जागरूक हों और ऐसी गलत -फहमी में न  पडें। सदा बराबरी की बात पर अड़ें; क्योंकि "जननी-जन्मभूमि " सिर्फ पुरुषों के लिए नहीं बल्कि हमारे लिए भी उतना ही 'महान' है. इसलिए हम सभी संकल्प लें कि सदियों से 'विस्थापन ' की जिंदगी जैसी कोढ़ को जड़ से उखाड़ फेंकें और अपने अस्तित्व एवं अपनी पहचान को कायम रखें।

सरिता कुमारी
A-100, सेल सॅटॅलाइट टाउनशिप,
रांची -834004 
M :9835152680